सपने हमेशा औकात से बड़े देखता हूँ,
मैं कहाँ माँ को भगवान से परे देखता हूँ?
झुर्रियाँ पड़ चुकी हैं, अब हाथों में उसकी,
समझ खो चुकी हैं, अब बातें भी उसकी।
दर्द के अर्श ने उसको कर्राहट भुला दी है,
उसके जाने के ग़म ने हर आँखें रुला दी है।
अब घुटन होती है, इस दुनिया की रीत में,
छुरा दिख जाता है, दिखावे की प्रीत में।
चिता पे उसकी मैं अपनी रोटी नहीं सेकता हूँ।
मैं कहाँ माँ को भगवान से परे देखता हूँ?